आख़िरकार दमोह उपचुनाव का परिणाम आ गया। 17 हजार से ज्यादा वोटों से कांग्रेस पार्टी के अजय टंडन चुनाव जीत गए। आम तौर पर दमोह का चुनाव बराबरी का होता था।लेकिन इस बार भारतीय जनता पार्टी को करारी हार मिली। कांग्रेस की इस जीत और भाजपा की हार के कारणों के कई मायने हैं।
दमोह@बिट्टू दुबे
आरोप प्रत्यारोप का दौर जारी है , लेकिन इस हार जीत के एक नहीं कई कारण हैं। दरअसल मतदाताओं के समीकरण के हिसाब से लम्बे समय से कांग्रेस की सीट मानी जाने वाला दमोह जयंत मलैया के मैनेजमेंट के चलते भाजपा की झोली में आती रही। 2018 में कांग्रेस के युवा चेहरे के तौर पर राहुल लोधी ने मलैया के प्रति नाराजगी का फायदा उठाया और मामूली अंतर से जीत दर्ज कर ली। इसके बाद डेढ़ साल में ही कर भाजपा में आ गए। कैबिनेट मंत्री का दर्जा तो मिला लेकिन साथ ही मिली दोबारा उसी दमोह की जनता के बीच जाने की चुनौती। जिसमें वह हार गए। अब चुनाव में जीत हार के कारण तलाशे जा रहे हैं। जो मेरा मानना है कि एक नहीं कई हैं। दमोह चुनाव को बारीकी से देखने के चलते निम्न बिंदुओं को खंगाला है जो जीत हार के कारक बने हैं और जिन पर चर्चा लोगों के बीच हैं।
1 – दलबदल और जनता का गुस्सा
राहुल लोधी ने 2018 का विधानसभा चुनाव जीते तो दमोह में लगभग 35 सालों से हाशिये पर रहे एक वर्ग के मन में अप्रत्याशित जोश था। उन्हें लगा कि आखिरकार मलैया परिवार से दमोह को मुक्ति मिली। इसीलिए राहुल को 2018 में बहुत से लोगों ने तन-मन-धन से सहयोग किया। आम जनता के बीच भी एक बड़ा वर्ग ऐसा था जो लम्बे समय तक विधायक रहने के बाद जयंत मलैया या उनके लोगों से ऊब गया था। जनता के इस वर्ग ने भी राहुल को आगे बढ़ाने में सहयोग किया था। लेकिन बदलते राजनैतिक परिदृश्य में जब राहुल लोधी भाजपा में आकर चुनाव के मैदान में उतरे तो यही लोग जो राहुल की जीत के कारक थे वे खिसियाये, झल्लाए और आखिरकार टूट पड़े उन्हें हराने के लिए। यूं कहें कि राहुल की बेवफाई का बदला लेने के लिए सब कुछ करने को तैयार हो गए।
2 – राहुल की कार्यशैली
राहुल लोधी का राजनैतिक करियर बहुत लम्बा नहीं है। जिला पंचायत सदस्य का चुनाव बड़े अंतर से जीतने के चलते चर्चा में आये और कांग्रेस से टिकट पाकर विधायक बन गए। और डेढ़ साल में ही भाजपा में शामिल होकर चुनाव लड़ गए। देश साल के कांग्रेसी विधायक के कार्यकाल में कोई बड़ी उपलब्धि उनके पास नहीं थी और छोटे से राजनैतिक करियर में बड़ी विश्वसनीय टीम भी नहीं बन पाई। जब स्थानीय भाजपा के भीतर उन्हें असहयोग मिला सो टीम के आभाव में उनका चुनाव परवान नहीं चढ़ पाया। जबकि पूर्व में हुए 28 उपचुनाव में से ज्यादातर में भाजपाई प्रत्याशियों के पास कई चुनाव लड़ने का अनुमभ और अपनी टीम थी जिसके बूते वे अपनी रणनीति में कामयाब हुए।
इसके साथ ही कम व्यावहारिक होना , भाजपाइयों के संग कम घुल मिल पाना भी राहुल की हार का बड़ा कारण बना
3 – खुद को वोट देने के लिए जायज कारण न बता पाना।
2018 में राहुल लोधी चुनाव जीते थे मलैया विरोध और युवा सोच के चलते। लेकिन इस चुनाव में जनता को वह यह नहीं समझा पाए कि डेढ़ साल की कांग्रेस सरकार के विधायक रहते हुए जब कुछ नहीं कर पाए तो अब क्या कर देंगे दमोह के लिए। मेडिकल कॉलेज का जो मुद्दा उन्होंने अपनी पार्टी बदल के लिए बताया वह चुनाव के पहले जमीन पर उतरना नामुमकिन था सो यह मुद्दा भी चुनाव में बेअसर रहा
4 – कोरोना
17 अप्रैल को दमोह उपचुनाव की वोटिंग होते होते कोरोना बड़ा मुद्दा बन गया। तब तक पूरे देश समेत मध्य प्रदेश में कोरोना पैर पसार चुका था।
मध्य प्रदेश के कई शहरों में लॉक डाउन और दूसरी तरफ दमोह में चुनावी सभाएं लगातार भाजपा के लिए नकारात्मक भावनाएं भर रही थी।धीरे धीरे माहौल ऐसा बना कि दमोह में कोरोना फैलने का कारण चुनाव को माना जाने लगा या फिर ये मानिये कि भरे कोरोना में उपचुनाव थोपे जाने के लिए मतदाता भाजपा को जिम्मेदार मानने लगे। इसी से फैली खुन्नस हार में बदल गई
5 – भाजपा स्थानीय कार्यकर्त्ता
भारतीय जनता पार्टी के स्थानीय कार्यकर्ताओं को समझाने के लिए प्रदेश संगठन ने दिन रात एक कर दिया। खुद प्रदेश अध्यक्ष वीडी शर्मा से लेकर संगठन के सभी बड़ी पदाधिकारी यहां डेरा डाले रहे। लेकिन इसके बाद भी वे स्थानीय कार्यकर्ताओं को प्रेरित करने में नाकामयाब हो गए। इसकी सबसे बड़ी वजह थी जिलाध्यक्ष को छोड़कर ज्यादातर बड़े पदों पर मलैया समर्थक। यह बात जांच का विषय है कि किन पदाधिकारियों ने दिल से काम किया या नहीं। लेकिन इतना तो तय था कि चुनाव की घोषणा के बाद से चुनाव तक पार्टी में सब कुछ सजह नहीं था। आखिर तक पार्टी अविश्वास से जूझती रही।
6 – जयंत मलैया – सिद्धार्थ मलैया
दमोह उपचुनाव और परिणाम से ज्यादा चर्चा रही मलैया परिवार की भूमिका। लगभग 35 साल तक दमोह विधानसभा की राजनीति में चमकते रहे जयंत मलैया 2018 में चुनाव हारे तो भी बहुत कम वोटों से। ऐसे में जयंत मलैया के लिए यह चुनाव तो आखिरी राजनैतिक पारी माना गया। लेकिन उनके बेटे सिद्धार्थ मलैया अगले चुनाव यानि 2023 की तैयारी में जुट गए थे। इसी बीच राहुल लोधी, जिन्होंने मलैया को हराया था, उनका भाजपा में आना और उपचुनाव में प्रत्याशी बनना किसी भी लिहाज से मलैया परिवार के लिए असहनीय था ही। ऐसे में उपचुनाव की घोषणा के बाद से प्रत्याशी के नाम की घोषणा तक सिद्धार्थ मलैया अपनी दावेदारी भाजपा में करते रहे। प्रत्याशी के तौर पर राहुल सिंह के नाम का ऐलान होने के बाद भी उनके निर्दलीय चुनाव लड़ने की चर्चा रही लेकिन आखिर उन्होंने पिताजी का आदेश बताकर चुनाव लड़ने से इंकार कर दिया। इसके बाद से लेकर चुनाव तक अचानक से कुछ दिन राजनीति से गायब हो गए तो आखिर में भाजपा ने सिद्धार्थ को शहर का चुनाव प्रभारी बना दिया और वे पार्टी के मंच पर दिखाई दिए। इस पूरे चुनाव में सुधा मलैया कहीं नहीं दिखीं तो जयंत कुछ दिन छोड़कर बाकी समय पार्टी का प्रचार करते नजर आये। राहुल सिंह के आरोपों के बाद जयंत मलैया ने इस बात से इंकार किया कि उनके परिवार के किसी शख्स ने भाजपा के खिलाफ काम किया। लेकिन दूसरी तरफ सिद्धार्थ की लगातार बयानबाजी,भरे चुनाव में उनकी आशीर्वाद यात्रा ,उनसे जुड़े समर्थकों की चुनाव में निष्क्रियता और चुनाव के ठीक पहले उनकी ‘शक्ति पुत्र’ से मुलाकात के बाद उपचुनाव में जनचेतना पार्टी के उम्मीदवार का मैदान में आना राहुल सिंह के आरोपों का आधार है। यदि राहुल सिंह के आरोप निराधार भी हों तो भी इतना तो तय था कि सिद्धार्थ मलैया इस चुनाव के दौरान भाजपा के लिए जो भी थोड़ा बहुत करते दिख रहे थे वह बेमन से था। हालांकि दूसरा पहलू यह भी है कि अपने ही राजनैतिक प्रतिद्वंदी के लिए भी जीत की सेज मन से सजाते भी तो कैसे
7 – मंहगाई
दमोह का चुनाव इस लिहाज से भी बेहद अहम था क्यूंकि यहां भाजपा मोदी के सहारे भी न जीत पाई। भाजपा ने रणनीति बनाई कि चुनाव में मोदी के नाम का इस्तेमाल किया जाये। लेकिन चुनाव प्रचार के दौरान पट्रोल के भाव 100 , डीजल 90 और खाद्य तेलों के भाव 150 छू रहे थे। इस मंहगाई के लिए जनता सीधे मोदी को जिम्मेदार मान रही थी। वहीं चुनाव आते आते बढ़ते कोरोना ने भी मोदी के करिश्मे से फायदे की बजाय भाजपा को नुकसान दिया
8 – कांग्रेस की रणनीति
दरअसल दमोह में कांग्रेस पार्टी के पास जातिगत आधार पर हमेशा ही मजबूत वोट बैंक रहा है। ऐसे में कोई बड़े प्रयास न करते हुए कांग्रेस ने दलबदल के मुद्दे को उठाते हुए पूरा चुनाव भाजपा और जनता के बीच बनाने की रणनीति बनाई। कांग्रेस को पता था कि पार्टी स्तर पर वह सरकार से शायद मुकाबला न कर पाए इसलिए उसके एक ही नारा दिया कि यह चुनाव जनता लड़ रही है और आखिर में जनता ने भाजपा को हरा दिया , प्रत्याशी बस कांग्रेस का रहा। इसके साथ ही अजय टंडन के प्रत्याशी बनते साथ ही मनु मिश्रा को कांग्रेस का जिलाध्यक्ष बनाना भी ब्राह्मण समुदाय को सकारात्मक संदेश दे गया
9 – भाजपा की रणनीतिक चूक
दमोह उपचुनाव के लिए प्रदेश भर के तमाम पदाधिकारी और मंत्री विधायक तो जोड़ लिए गए लेकिन कुछ बड़ी रणनीतिक चूक हो गईं। मसलन पूर्व विधायक लखन पटेल को देर से भरोसे में लेना और चुनाव के संगठन में लोधी के अलावा अन्य समाज के लोगों का संतुलन न बना पाना बड़ा कारण रहा। इसके साथ ही 28 चुनाव के समय तो भाजपा अपने कार्यकर्त्ता में यह मुद्दा देने में कामयाब हो गई थी कि चुनाव सरकार के स्थायित्व के लिए है। लेकिन इस चुनाव में भाजपा अंत तक बता ही नहीं पाई कि आखिर यह चुनाव है किस लिए
मुख्यमंत्री का अंतिम चरण में चुनाव छोड़ देना –
मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान आम तौर पर उपचुनाव के दौरान चुनावी क्षेत्र में 1 -2 रात्रि विश्राम करते हैं। नाराज लोगों को मनाते है और अपनी कार्यशैली से प्रभावित कर देते हैं। लेकिन इस चुनाव का प्रचार परवान चढ़ते ही कोरोना भी प्रदेश में परवान चढ़ा। मुख्यमंत्री दमोह जा जरूर रहे थे लेकिन साथ साथ कोरोना से बिगड़ते हालात भी टेंशन दे रहे थे और आखिरी के 3 दिनों में तो मुख्यमंत्री ने दमोह से दूरी ही बना ली। यदि हालात सामान्य होते तो जीत हार का तो पता नहीं , लेकिन इससे बेहतर परिणाम आते।
10 – क्या होगा सिद्धार्थ – राहुल का भविष्य
सिद्धार्थ मलैया
इस चुनाव के बाद दमोह की सियासत में अपनी अहमियत तो सिद्धार्थ मलैया ने बता दी है। लेकिन समस्या यह है कि भाजपा में उनकी अहमियत इसलिए बताई जा रही कि पार्टी के हारने की एक वजह उनकी निष्क्रियता भी है । जबकि पार्टी को ऐसे लोगों की जरूरत होती है जिनके कारण वह चुनाव जीते। ऐसे में राहुल लोधी की राजनीति को नुकसान तो हुआ पर सिद्धार्थ इस चुनाव के बाद फायदे में हैं , यह कहना जरा मुश्किल है। कम से कम भाजपा में तो कठिन है और अगर भविष्य में कांग्रेस की ही राह पकड़नी है तो इस चुनाव में क्या बुराई थी। फिर भी अगर सिद्धार्थ पार्टी को यह समझाने में कामयाब हो गए कि उन्होंने पार्टी के प्रति पूरी वफादारी और निष्ठा से काम किया है तो उन्हें भविष्य में मौके मिल सकते हैं। हालांकि उन्हें यह साबित करने में भी खासी मेहनत करनी
होगी।
राहुल लोधी
राहुल लोधी , इस उपचुनाव में हार के बाद अपने भाजपा में जाने के निर्णय पर अफ़सोस कर रहे हैं या नहीं , यह तो उनका मन जानता होगा। लेकिन सच्चाई यही है कि बुंदेलखंड के एक युवा नेता का करियर शुरुआत में ही संकट में आया है। कांग्रेस में दरवाजे बंद हैं और भाजपा में इस हार के बाद उनके दुश्मन कई हजार गुना बढ़ गए हैं। हालांकि लोधी बाहुल्य इलाकों में उन्हें इन विपरीत हालातों में भी भरपूर वोट मिले हैं। इसलिए राहुल को इस हार से सबक लेते हुए बाकी वर्गों के साथ मेलजोल बढ़ाने के साथ ही खुद के व्यक्तित्व और व्यवहार पर लंबा काम करना होगा। हालाँकि यह सब मुश्किल है लेकिन उनकी युवा उम्र को देखते हुए असंभव तो कतई नहीं।